बकरीद: कुर्बानी या गैर मुस्लिमों का भयदोहन

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कुर्बानी तो बहाना है, असली मकसद तो गैर हिंदुओं को डरना है।

कल कश्मीर की एक मस्ज़िद में ऐसा क्या कहा गया हुआ होगा कि बाहर आते ही पत्थरबाजी शुरू हो गई। इधर कुछ दिनों से सुनाई नहीं दे रही थी पत्थरबाजी की घटना।

कुर्बानी में बकरों की जगह कुछ और माँग लिया गया क्या, कहीं लड़कों को मार डालो का संदेश तो नहीं दे दिया गया मस्ज़िदों में। लड़कों से यह तो नहीं कह दिया गया कि ऐसे देश के भीतर ईद नहीं मनानी चाहिए जहाँ काफ़िर रहते हों। इन ईमान वाले लड़कों को आखिर भटकाता कौन है?

हमारे वामपंथी (झूठे नास्तिक) भी कभी यह नहीं बताते कि इस तरह की uniformity, पूरी दुनिया के इस्लामीकरण के प्रयास सही है या गलत। यहाँ वो चुप हो जाते हैं (शायद दिल में छुपी इस्लामी दहशत) या फिर गौरक्षक की गुंडागर्दी, कठुआ में बलात्कार पर धारा-प्रवाह बोलने लगते हैं (क्योंकि हिंदुओं की दहशत तो कभी वामपंथियों के दिल महसूस ही नहीं हुई)।

कल केरल के एक युवक ने कहा कि तुम्हारी सरकार हमारे रसोई में झांकना चाहती है, हमें हमारे मन का खाने नहीं देती। और इसके साथ ही उसने मुझे बीफ़ की प्लेट की फ़ोटो भेजी और कहा कि यह केरल की प्रसिद्ध बीफ़ की रेसिपी है, इसे अपने किचन में पका कर खाओ।

मुझे यह कहना पढ़ा कि तुम्हें ये कैसे पता चला कि तुम्हारी और तुम्हारे लोगों के बच्चों की ज़िंदगियाँ एक गाय और बछड़े से ज़्यादा महत्वपूर्ण है?

तुम अपने बच्चों की रेसिपी बनाकर उन्हें क्यों नहीं खा जाते? तुम कौन हो यह निर्णय लेने वाले कि गाय, बछडे, बकरी या किसी भी पशु का जीवन मूल्यविहीन है और मनुष्य अपनी इच्छा से उन्हें ख़त्म कर सकता है?

तुम भी अपने खाने का अपना चुनाव अपने रसोई के भीतर करो और उसका प्रदर्शन सड़कों पर और सोशल मीडिया पर न करो।

बीफ़-पार्टी और सड़कों पर गायों की हत्या केवल खाने के लिए नहीं होती, उसका मक़सद कुछ और होता है।

मस्जिदों के बाद और बाहर आने पर होने वाले पथराव औऱ हत्या हों या खुलेआम जानवरों का क़त्लो-गारत करते हुये बकरीद का जश्न मनाना भी बेमक़सद नहीं है। इनके पीछे 1400 साल से एक ही मकसद दिखाई देता है कि किस तरह गैर-मुस्लिमों के मन में अधिक से अधिक खौफ / भय पैदा किया जा सके ?

हम क्या खाते हैं या क्या नहीं खाते, यह हमारा अपना चुनाव ज़रूर है पर जीवन को ख़त्म करने का अधिकार किसी को नहीं है। तुम प्रकृति के किसी हिस्से को ख़त्म करोगे जाहिर है प्रकृति तुममें तुम्हारा कुछ नहीं रहने देगी।

जीवन वह अमूल्य निधि है कि स्वयं ही हम स्वयं का जीवन नहीं ख़त्म कर सकते।

जीवन हो या जीवन की शांति इसे किसी की भी मौत या कोई भी हिंसा क़ायम नहीं रख सकती। अपने दिल में बसी नफ़रत को खाने नहीं दे रहे, पहनने नहीं दे रहे का बहाना बना लेना बहुत तुच्छ और छोटी वज़ह लगती है।

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