BHU के संस्कृत संकाय में "मुस्लिम प्रोफेसर" की नियुक्ति सवालों के घेरे में ?

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क्या आप ने कभी सोचा है कि आजकल कई मुसलमान संस्कृत अध्ययन में लगे हैं। कुछ तो बाकायदा शास्त्री भी बने हैं। फिर आप देखेंगे कि ये मुस्लिम अपना यह ज्ञान, हिंदुओं के ग्रंथों को पढने में लगाते हैं और फिर उनपर लिखने बोलने लग जाते हैं।

इन बोलने लिखने वालों के दो प्रकार होते हैं। एक धडा ऐसे प्रसंग ढूँढता है जिनका मनमुताबिक अर्थघटन कर के वे हिंदुओं पर वैचारिक हमले करते हैं कि देखो तुम जिन्हें पूजते हैं वे किस लायक हैं, आप को ऐसों को पूजने में शर्म आनी चाहिए।

इसमें अक्सर वे कोई कम महत्वके पात्र खोजते हैं लेकिन उसको आधार बनाकर पूरे ग्रंथ और धर्म पर हमला बोलते हैं। यहाँ इनकी धूर्तता यह होती है कि ये अपने ग्रंथ तथा अपने श्रद्धेय को लेकर बिल्कुल कट्टर होते हैं और उनकी समीक्षा तथा आलोचना का हिंसक भाषा में विरोध करते हैं, और प्रत्यक्ष हिंसा पर उतर आने में इन्हें बिल्कुल समय नहीं लगता। इनके अपने फोरम मे ये मुखर होते हैं और वहाँ उनका संख्याबल कुछ इस कदर होता है कि स्पष्ट दिखता है कि हिंसा हो जायेगी। वैसे भी ये सवाल करनेवाले की सुरक्षा की कोई गैरंटी नही देते।

ज़ाकिर नाईक स्पष्ट उदाहरण था इस धूर्तता का। हमेशा अपने ही मंच से बोलता था, कभी भी खुले मंच पर या ऑनलाइन डिबेट में नहीं आया जहां उससे सवाल किए जा सके। और उसकी सभा में जो भी सवाल करने को उठता, उसके आजूबाजू सात आठ मुस्टंडे ऐसे ही मंडराते खड़े होते। चेहरे भावहीन लेकिन उनके वहाँ खड़े होने का सवाल पूछनेवाले के फायदे का कोई प्रयोजन नहीं होता था, बाकी बात समझ में आती है। वैसे भी, ज़ाकिर आपकी सुरक्षा की कोई गैरंटी तो देता नहीं था तो वहाँ जा कर सवाल पूछने से क्या मतलब ? ये रहा पहला धड़ा।

दूसरा धड़ा वो होता है जो दिखावे के लिए समन्वय की बात करता है, सनातन और इस्लाम में समानता ढूँढने की बात करता है । ये लोग वाकई हिंदुओं के धर्मग्रंथ पढ़ते हैं। गहन अध्ययन भी करते हैं लेकिन इनका हेतु केवल उस ज्ञान को लेकर हिंदुओं को subvert करना होता है। वेदों के आधे अधूरे उद्धरण देंगे, उपनिषदों से कोई श्लोकादि देंगे, और कुल मिलकर यही साबित करने का प्रयास करेंगे कि हिन्दू सही राह से भटक चुका है और उसे सही राहपर लाने के लिए इस्लाम आया है।

यहाँ ये एकेश्वरवाद की बात करेंगे, जो शब्द केवल अनुवाद है, monotheism का। समग्र हिन्दू दर्शन में इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। यह ज़ाकिर नाईक टाइप के बदमाशों का चलाया हुआ शब्द है और आज का संस्कृत और संस्कृति से भी कटा हुआ हिन्दू यह नहीं जानता कि यह शब्द एक विदेशी शब्द का अनुवाद है जिसको उसे बेचा जा रहा है।

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क्या BHU के नवनियुक्त मुस्लिम (Muslim) अध्येता जनाब फिरोज खान को इन निकषों पर परखा गया है कि वे क्या पढ़ाना चाहते हैं ? या सिर्फ भाषा का ज्ञान ही निष्कर्ष है ?

कई लोग, खास कर ब्राह्मण उपनामधारी, सोशल मीडिया पर जान बूझकर निंदाव्यंजक सुर में बोल रहे हैं कि क्या संस्कृत पर ब्राह्मणों का एकाधिकार है ? अगर ये लोग देवभाषा सीख रहे हैं और ब्राह्मणों से अच्छी सीख रहे हैं तो क्या बुराई है?

वैसे तो जो ब्राह्मण वामपंथी है, शुक्राचार्य के स्खलित शुक्राणुओं की परंपरा का निर्वहन करता है उसे भी संस्कृत नहीं सिखानी चाहिए। क्योंकि हमें समझना चाहिए कि आज संस्कृत हमारे लिए क्या है।

अब जो लिखने जा रहा हूँ इससे आप को मतभेद हो सकता है, लेकिन वह केवल इसलिए होगा कि आप ने यह मुद्दे को इस दृष्टि से देखा नहीं होगा। आज संस्कृत हिन्दू के मन के गढ़ की सुरंग बनी है जो सीधा उसके मन पर कब्जा करने की कुंजी है।

हमें आज यह निस्संकोच मान लेना चाहिए कि हम संस्कृत के अध्ययन से विमुख हो चुके हैं क्योंकि यह अर्थोपार्जन का जरिया नहीं रहा। हिन्दू छात्र और छात्राएँ संस्कृत नहीं पढ़ रहे क्योंकि उनके लिए 'स्कोप' नहीं रहा। मतलब कोई अच्छी सरकारी या कॉर्पोरेट "जोब" नहीं मिल्लई, अच्छी वाली 'जोब' नहीं मिल्लई तो अच्छी वाली छोकरी नहीं मिल्लई, सोसायटी में कोई इज्जत नहीं मिल्लई क्योंकि उतनी कमाई नहीं मिल्लई।

इसलिए चूँकि हिन्दू (Hindu) संस्कृत छोड़ रहे हैं, विधर्मियों को खाली जगह दिख रही है और वह भी धर्म को समूल उखाड़ने के लिए। वरना आप बताएं, कौन से मुस्लिम से पूजा करवाएगा कोई हिन्दू ? वो तो होने से रहा, तो अगर हिन्दू को कोई कमाई नहीं तो फिर ये मुस्लिम क्यों संस्कृत सीख रहे हैं ? समय तो उनको भी उतना ही लगना है, जिंदगी के अहम वर्ष लगाकर संस्कृत की डिग्री हासिल करनी है। और अगर उनसे कोई पूजा या कर्मकांड सम्पन्न नहीं करवाएगा तो ये क्यों समय लगा रहे हैं, ज़रा सोचिए तो?

बनारस (Varanasi) के एक मित्र के अनुसार, वहाँ बच्चों को संस्कृत ट्यूटर अधिकतर मुस्लिम महिलाएं हैं। अगर सच है तो यहाँ उनकी अध्ययन या अध्यापन क्षमता पर मैं कोई शक नहीं कर रहा, लेकिन नीयत पर संदेह अवश्य रहेगा।

हाल ही में सूरत (Surat) में एक टेक्सटाइल व्यापारी की हत्या उसके कर्मचारियों ने की थी। ज़रूर सस्ते में मिलते हैं इसलिए रखे होंगे।

कुछ परिचित मुस्लिम हैं, संस्कृत की जानकारी में कईयों से इक्कीस ही निकलेंगे। फिर भी, इनकी नीयत वही है, अपने अध्ययन का लाभ केवल और केवल हिन्दू धर्म की निंदा के लिए लेते हैं। या फिर गलत उदाहरण देकर यह साबित करना चाहते हैं कि आज का हिन्दू राह भटक चुका है और परमेश्वर प्राप्ति का सच्चा मार्ग मुस्लिम मार्ग है। सब से क्रोध मुझे उन उपस्थित हिंदुओं पर आता है जो ऐसे बदमाशों से नहीं पूछते कि आप ने वेदान्त पढ़ा, अद्वैत पर पढ़ा तो फिर भी आप प्रेषित की बात सोच ही कैसे सकते हैं जो केवल एकोपास्यवाद का हिंसक हठ लेकर बैठा है? इन म्लेच्छों की बदमाशी यह होती है कि अद्वैत पर बात नहीं करते और सीधा डिक्टेट करते हैं । वे तो ऐसे ही होंगे, लेकिन अपने हिन्दू क्यों रीढ़विहीन होकर वहाँ बैठे रहते हैं और मुदित हो कर सिर हिलाते रहते हैं ऐसे कालनेमियों के अनुमोदन में, समझ के परे है ।

इस बात का विरोध होना चाहिए, यह L1 टेंडर नहीं है। आज ये अध्यापक बनेंगे, कल अपने पद का रोब झाड़कर किसी झूठ को प्रमाणित नहीं करेंगे इसकी क्या गैरंटी ? इतिहासकारों ने जो खेल इतिहास को लेकर खेला, क्या ये धर्म को लेकर नहीं खेलेंगे ? Is it not better to be cautious ?

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