"विषैलावामपंथ" पुस्तक एक मंजिल नहीं, एक यात्रा है

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विषैलावामपंथ, vishaila vampanth-(poisonous-communism)-book is not a destination but a journey, Dr-Rajeev-Mishra, JNU,"विषैलावामपंथ" (poisonous-communism) पुस्तक एक मंजिल नहीं, एक यात्रा है

कल शाम कॉलेज के बच्चों के एक झुण्ड से मिला। 20-22 साल के बच्चे, प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारियां करते हुए। उनका आधा घंटा समय चुरा कर उनसे बातें की। उन्हें उनकी भाषा में वामपंथ का विष समझाया।


उनमें से एक लड़का वामियों के प्रभाव में था। उसने कुछ बेहद प्रासंगिक प्रश्न पूछे जिनका जवाब देने में मजा आया, और अपनी सोच भी स्पष्ट हुई।

उसकी पहली शंका थी वामपंथ की परिभाषा में ?

उसने कहा - वामपंथ वह सिद्धांत है जो समानता चाहता है।
मैंने कहा - नहीं! वामपंथ वह सिद्धांत है जो संघर्ष चाहता है।
उसने कहा - हाँ, अमीर और गरीब के बीच संघर्ष तो होगा।
मैंने कहा - कौन अमीर है और कौन गरीब? हर कोई किसी ना किसी से अमीर है और किसी ना किसी से गरीब। यह दो वर्ग नहीं हैं, एक स्पेक्ट्रम है। जब मैं हवाई जहाज की इकॉनमी क्लास में चलता हूँ तो मैं गरीब हूँ। मुझे इच्छा होती है कि बिज़नेस क्लास वालों से संघर्ष करूँ और उनकी सीट ले लूँ।

और हमें समानता क्यों चाहिए? किसने समझा दिया कि हमारा लक्ष्य समानता है? हमारा लक्ष्य समानता नहीं, समृध्दि और उन्नति है। तुम नौकरी ढूँढ रहे हो... क्या तुम्हें रतन टाटा बनना है? या तुम टाटा कंपनी में एक अच्छी नौकरी चाहते हो जिसमें तुम्हें अच्छी सैलरी मिले?

बच्चे ने मैक्सिम गोर्की की माँ, मेरा बचपन, मेरे विश्वविद्यालय पढ़ रखी थी। मैंने भी अपनी किशोरावस्था में यही किताबें पढ़ी थीं। बहुत रोचक रहा, पुरानी पढ़ी हुई किताबों की यादें निचोड़ना।

उसने कहा - मैक्सिम गोर्की जैसा लेखक अगर मार्क्सवाद से प्रभावित था तो उसमें कुछ तो बात होगी... कोई बेवकूफ लोग तो नहीं थे...

मैंने कहा - पर वे बेवकूफ बन गए। उनके जैसे कितने ही लेखकों और बुद्धिजीवियों ने साम्यवाद का समर्थन किया। रूस में उनमें से अधिकांश साइबेरिया जा पहुँचे। चीन में हंड्रेड फ्लावर्स कैंपेन के बाद वे जेल में डाल दिये गए या मार डाले गए।

हाँ, मार्क्स ने दुनिया को बेवकूफ़ बनाया। उसने एक झूठ बोला जिसपर उनलोगों ने प्रश्न नहीं किया।

यह बताओ, लाभ किस बात का परिणाम है और इसपर किसका हक़ है? श्रम का या पूँजी का?

उसने कहा - श्रम का। पूँजी तो पूरे समाज की साझा सम्पत्ति है।

मैंने कहा - यही मार्क्स का बेसिक झूठ है। लाभ ना श्रम का परिणाम है ना पूँजी का। श्रम का रिवॉर्ड पारिश्रमिक है, पूँजी का रिवॉर्ड है सूद। लाभ साहस का परिणाम है। जिसने नुकसान उठाने का जोखिम लिया, लाभ पर उसका हक़ है।

बच्चे ने पूछा - फिर आपका सोल्यूशन क्या है? आदमी को एक विचारधारा तो चाहिए।

मैंने कहा - मैंने यह पुस्तक एक विचारधारा के विरुद्ध दूसरी विचारधारा को स्थापित करने के लिए नहीं लिखी। यह इस पुस्तक का विषय नहीं है। पर मैंने इसमें दो लोगों का जिक्र किया है जिन्होंने एक समाधान सा प्रस्तुत किया है? एक है चीन के देंग सियाओ पिंग और दूसरे सिंगापुर के ली कुआन यू। एक कम्युनिस्ट और दूसरा घोर एन्टी-कम्युनिस्ट। और इन दोनों ने अपने अपने देशों को समृद्धि दी। क्योंकि ये दोनों ही विचारधारा के फेर में नहीं पड़े। दोनों ने प्रत्येक समस्या के अलग अलग समाधान ढूंढे। हर बीमारी की एक दवा नहीं होती। हम विचारधारा के फेर में फँस के समस्या को भूल जाते हैं, समाधान को खो देते हैं।

बच्चे ने कहा - सर! इतने सालों से मैं कम्युनिस्टों के साथ हूँ, अपनी विचारधारा को एक दिन में छोड़ तो नहीं सकता। लेकिन यह किताब पढ़ूँगा जरूर।

छोटी सी पर आरंभिक सफलता। वामपंथ के खोल को भेदते हुए मैं उसके मर्म तक पहुँच सका, तो सिर्फ इसलिए कि वह अभी भी सामाजिक आर्थिक असमानता से आहत था, समाधान चाहता था। वह क्लासिकल मर्क्सिज्म का शिकार था, कल्चरल मर्क्सिज्म का नहीं। उसने अपने देश, समाज से घृणा करनी आरंभ नहीं की थी। उसे जेएनयू के कन्हैया टाइप गुंडों से सहानुभूति नहीं थी जो भारत के टुकड़े टुकड़े के नारे लगाते हैं। पर उसे शिकायत थी कि शिक्षा फ्री क्यों नहीं है।

मैंने उसे समझाया - तुम्हारा हिस्सा वे जेएनयू वाले खा जा रहे हैं जो दिल्ली में वर्षों वर्षों तक दस रुपये महीने के कमरे में पड़े सब्सिडी की रोटियाँ तोड़ते हैं। वे तुम्हारी लड़ाई नहीं लड़ रहे, तुम्हारे बहाने से पब्लिक के पैसे पर ऐश कर रहे हैं। वामपंथी भी यही करते हैं। गरीबों के बहाने से गरीबों के हिस्से के पैसे पर ऐश करते हैं।

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