बढ़ते कब्र-स्थल और जन-स्मृतियों की राजनीति
हमारे मुग़ल बादशाहहों को भी केवल दो गज़ ज़मी नहीं चाहिए होती थी मौत के बाद, उन्हें चाहिए होता था अवाम के उन पर फ़ना हो जाने का हुनर, कि सौ-सौ मौत मरे अवाम उनकी मौत के बाद भी और युगों तक चलता रहे मातम। इसीलिए केवल दो गज़ ज़मीं से पूरी नहीं होती थी, शहंशाहों की मौतों की बेहिसाब हसरतें, उन्होंने बसाया दर्द का पूरा एक शहर, मौत के दर्द की नुमाइश पर देना होता था दर्द, कि शामिल तो हो उनके दर्द में मज़बूर आवाम का दर्द। बेग़ैरती बर्दाश्त के बाहर की बात जो थी शहंशाहों के लिए। खड़ी की उन्होंने जुआफ सी सर्द इमारतें कि मौत खड़ी रहे बदस्तूर ज़मीन पर कि बदस्तूर कायम रहे, ज़मीन पर उनका हक़ मौत के बाद भी। यह कब्रगाहों की राजनीति हमारे नेताओं ने अपना ली और नतीजतन देश ऐसे नेताओं की " कब्रों / स्थलों" से पटा हुआ है।

हमारे मुग़ल बादशाहहों को भी केवल दो गज़ ज़मी नहीं चाहिए होती थी मौत के बाद, उन्हें चाहिए होता था अवाम के उन पर फ़ना हो जाने का हुनर, कि सौ-सौ मौत मरे अवाम उनकी मौत के बाद भी और युगों तक चलता रहे मातम। इसीलिए केवल दो गज़ ज़मीं से पूरी नहीं होती थी, शहंशाहों की मौतों की बेहिसाब हसरतें, उन्होंने बसाया दर्द का पूरा एक शहर, मौत के दर्द की नुमाइश पर देना होता था दर्द, कि शामिल तो हो उनके दर्द में मज़बूर आवाम का दर्द। बेग़ैरती बर्दाश्त के बाहर की बात जो थी शहंशाहों के लिए। खड़ी की उन्होंने जुआफ सी सर्द इमारतें कि मौत खड़ी रहे बदस्तूर ज़मीन पर कि बदस्तूर कायम रहे, ज़मीन पर उनका हक़ मौत के बाद भी। यह कब्रगाहों की राजनीति हमारे नेताओं ने अपना ली और नतीजतन देश ऐसे नेताओं की " कब्रों / स्थलों" से पटा हुआ है।
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